बीपीएल, नरेगा व राशन कार्ड में उलझा मेहनतकश दलित
दलित समाज का जो वर्ग पढ़ लिखकर गांव से शहर आया और कॉलोनियों में भी बस गया लेकिन अगली पीढ़ी के लिए कोई पुख्ता व्यस्था ना होने से दुखी है। अब न सरकारी नौकरियां, ना गांव में खेती बाड़ी और न ही व्यापार। ऐसे में खुद शिक्षित दलितों के सामने भी विकट समस्या खड़ी हो गई है। जाति मालूम होने पर प्राइवेट सेक्टर में हमें प्रवेश नहीं मिलता है। प्राइवेटाइजेशन व ग्लोबलाइजेशन के कारण आरक्षण होने के बावजूद हम असहाय हैं, सिर्फ आरक्षण का झुनझुना लिए घूम रहे हैं। ब्राह्मण व वणिक वर्ग बाजार व प्राइवेट सेक्टर को मजबूत करता रहा है। साथ ही पिछले दरवाजे से साजिश पूर्ण सरकारी नौकरियां खत्म करता जा रहा है। वणिक वर्ग के बच्चे की सी. एस., मैनेजमेंट, होटल व्यापार, ज्वैलरी, रियल एस्टेट, बिजनेस व ब्रिटेन की बातें करते हैं जबकि दलित वर्ग ग्राम सेवक, सिपाही, पटवारी, क्लर्क, ड्राइवर या नगर निगम में सफाई कर्मचारी बनने की कार्यवाही में उलझा हुआ है। गांव का गरीब दलित बीपीएल नरेगा कार्ड या राशन कार्ड बनवाने में ही जिंदगी पूरी कर रहा है। ब्रिटेन तो दूर हम अभी तक गांव की रूढ़ियों व धार्मिक अंधविश्वास व कर्मकांड से भी मुक्त नहीं हो पाए हैं। जमाना इंग्लिश का है और हम आज भी संस्त के गुणगान कर रहे हैं। इंग्लिश, फ्रेंच, जर्मन भाषा तो दूर दलित समाज तो हिंदी भी बराबर नहीं सीख पाया है। बड़े वर्ग का बच्चा ग्रेजुएट होकर कमाई का साधन ढूंढता है जबकि दलित वर्ग के बच्चे डिग्रियां लेकर गांव में गुटके चबाते घूमते हैं। वणिक वर्ग लाखों करोड़ों कमा रहा है और हम लोग अभी तक राशन की सस्ती चीनी, अनाज व केरोसिन लेने की लाइन में ही उलझे हुए हैं। सूअर, भैंस, बकरी के नाम पर सब्सिडी वाले लोन की आस लगाए रहते हैं। आखिर हम में व्यापारिक सोच कब पैदा होगी और बाबा साहब के सपने को कब साकार करेंगे।
चपरासी नहीं सेठ बनो और नौकर नहीं मालिक बनो
हम पचास हज़ार रिश्वत देकर चपरासी की सरकारी नौकरी के लिए कोशिश करते हैं। लेकिन इतनी पूंजी से कोई छोटा बिजनेस करने की नहीं सोचते हैं। मुश्किलें तो आती ही हैं लेकिन व्यापार सफल होने पर आने वाली कई पीढ़ियों का कल्याण हो जाता है। जबकि सरकारी नौकरी में तो कलेक्टर के बेटे को भी पूरी मेहनत करनी पड़ती है। कलेक्टर का बेटा कलेक्टर नहीं कहलाता जबकि सेठ व्यापारी का बेटा व्यापारी ही कहलाता है। बड़े व्यापार की छोड़ो फलों की दुकान वाला भी महीने की अच्छी रकम कमाता है। पानी के गोलगप्पे वाला या छोटा हेयर ड्रेसर भी खूब कमाता है फिर बड़े व्यापार की तो बात ही क्या। बस इसके लिए माहौल सोच व फैसला लेने की हिम्मत की जरूरत है। याद करो मारवाड़ी बनिये लोग एक जमाने में लोटा, अंगोछा व मन में कुछ करने की हिम्मत लेकर मारवाड़ से बाहर व्यापार के लिए निकले थे। वे आज भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के व्यापार में छाए हुए हैं। वे राशन कार्ड की बजाय पैन कार्ड, बस की बजाय हवाई जहाज हिंदी संसत की बजाय जर्मन, फ्रेंच, इंग्लिश में ज्यादा विश्वास रखते हैं। बाबा साहब का सपना था दलित समाज पूंजी पति बने। सिर्फ नौकरी मांगने वाला नहीं बल्कि नौकरी देने वाला वर्ग भी दलितों में पैदा हो। आखिर बाबा साहब का सपना कब पूरा होगा?