इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव खूब सुर्खियां बटोर रहे हैं। पिछले दिनों विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में उनकी टिप्पणी को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। अब कई विपक्षी सासंद महाभियोग का नोटिस भेजने की तैयारी कर रहे हैं।
लेकिन भारत में किसी जज को कैसे हटाजा जा सकता है? और क्या अब तक किसी जज को पद से हटाया गया है?
आइए जानते हैं
संविधान में जजों को हटाने की प्रकिया बताई गई है। संविधान के अनुच्छेद 124(4), (5), 217 और 2018 में इन प्रकियाओं का जिक्र है।
इसके तहत सबसे पहले जजों को हटाने के लिए नोटिस देना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट के जज को हटाने की प्रकिया की शुरुआत संसद के किसी भी सदन या लोकसभा या राज्यसभा में हो सकती है। इसके लिए सांसदों के हस्ताक्षर वाला नोटिस देना पड़ता है।
अगर ये नोटिस लोकसभा में दिया जाता है तो इसके लिए 100 या इससे अधिक सांसदों का समर्थन चाहिए।
अगर ये प्रकिया राज्यसभा से शुरू होती है तो इसके लिए 50 या इससे अधिक सांसदों का समर्थन चाहिए होता है।
नोटिस के बाद लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के सभापति इसे स्वीकार तब किसी जज को हटाने की प्रकिया आगे बढ़ सकती है। संविधान के प्रावधानों के अनुसार अगर
ये नोटिस स्वीकार होते हैं तो सदन के चेयरमैन या स्पीकर तीन सदस्य जांच समिति का गठन करते हैं। ताकि जजों को हटाने के लिए जो आधार बताए गए हैं उनकी जांच हो सके।
इस समिति के सदस्य होते हैं
1.सुप्रीम कोर्ट का एक जज
2.एक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश
3.चेयरमैन या स्पीकर की सहमति से चुने गए एक
व्याख्यात न्यायविद
अगर ये नोटिस संसद के दोनों सदनों में स्वीकार किया जाता है तो जांच समिति का गठन लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के सभापति मिलकर करते हैं।
हालांकि ऐसी स्थिति में जिस सदन में बाद में नोटिस दिया जाता है उसे रद्द माना जाता है।
जांच समिति अपनी पड़ताल के बाद औपचारिक रिपोर्ट बनाती है। इस रिपोर्ट को संबंधित सदन के अध्यक्ष को दिया जाता है। सदन के स्पीकर इस रिपोर्ट को सांसदों के सामने रखते हैं। अगर जांच रिपोर्ट में जज को दोषी पाया जाता है तो जज को हटाने के प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में मतदान के लिए रखा जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 124(4) के मुताबिक जज को हटाने की प्रकिया तभी आगे बढ़ती है जब इस प्रस्ताव को दोनों सदनों के कुल सदस्यों में से बहुमत का समर्थन हासिल हो। साथ ही समर्थन करने वाले सांसदों की संख्या सदन में मौजूद और मतदान करने वाले सदस्यों की दो तिहाई संख्या से कम नहीं होनी चाहिए। जज को हटाने की सारी प्रक्रिया अगर पूरी हो जाती है तो प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास जात है। इसके बाद राष्ट्रपति के आदेश पर ही जज को हटाया जा सकता है।
1.
वर्ष 1991 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश "वी रामास्वामी'' को पद से हटाने की प्रकिया शुरू हुई थी। जांच समिति ने भी उन्हें दोषी पाया था। लेकिन महाभियोग प्रस्ताव को पर्याप्त सांसदों का समर्थन नहीं मिला।
2.
साल 2011 में सिक्किम हाईकोर्ट के जज "पीडी दिनकरन" को हटाने की भी प्रकिया शुरू हुई थी। मामला जांच समिति तक गया। लेकिन इस प्रक्रिया को उस समय रोकना पड़ा क्योंकि जस्टिस्ट दिनाकरन ने जांच समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए इस्तीफ़ा दे दिया।
3.
साल 2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस्ट "सौमित्र सेन" के खिलाफ महाभियोग की प्रकिया शुरू हुई। जांच समिति ने उन्हें दोषी पाया। महाभियोग प्रस्ताव की राज्यसभा में काफी समर्थन मिला लेकिन लोकसभा में मतदान से पहले ही जस्टिस्ट सौमित्र सेन से इतीफा दे दिया।
4.
साल 2015 में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस "पार्दीवाला" को भी हटाने के लिए प्रस्ताव आया। मामला था आरक्षण के खिलाफ उनके फैसले में जातिगत टिप्पणी। लेकिन ये प्रस्ताव उस समय बेमानी हो गया जब जस्टिस्ट पार्दीवाल ने फैसले से विवादित टिप्पणी को हटा दिया।
5.
2015 में ही मध्यप्रदेश के हाइकोर्ट के जस्टिस "SK गंगेले" को हटाने की प्रकिया शुरू हुई थी। लेकिन राज्यसभा की जांच समिति ने उन्हें क्लीन चिट दे दी।
6.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाइकोर्ट के जस्टिस "सीवी नागार्जुन रेड्डी" के खिलाफ भी 2016 और 2017 में महाभियोग प्रक्रिया शुरू हुई थी। लेकिन जांच समिति के गठन से पहले ही दोनों ही बार इस प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिला।
Revise
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव खूब सुर्खियां बटोर रहे हैं। पिछले दिनों विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में उनकी टिप्पणी को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। अब कई विपक्षी सासंद महाभियोग का नोटिस भेजने की तैयारी कर रहे हैं।
लेकिन भारत में किसी जज को कैसे हटाजा जा सकता है? और क्या अब तक किसी जज को पद से हटाया गया है?
आइए जानते हैं
संविधान में जजों को हटाने की प्रकिया बताई गई है। संविधान के अनुच्छेद 124(4), (5), 217 और 218 में इन प्रकियाओं का जिक्र है।
इसके तहत सबसे पहले जजों को हटाने के लिए नोटिस देना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट के जज को हटाने की प्रकिया की शुरुआत संसद के किसी भी सदन या लोकसभा या राज्यसभा में हो सकती है। इसके लिए सांसदों के हस्ताक्षर वाला नोटिस देना पड़ता है।
अगर ये नोटिस लोकसभा में दिया जाता है तो इसके लिए 100 या इससे अधिक सदस्यों का समर्थन चाहिए।
अगर ये प्रकिया राज्सभा से शुरू होती है तो इसके लिए 50 या इससे अधिक सदस्यों का समर्थन चाहिए होता है।
नोटिस के बाद लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के सभापति इसे स्वीकार करते हैं। तब किसी जज को हटाने की प्रकिया आगे बढ़ सकती है। संविधान के प्रावधानों के अनुसार अगर ये नोटिस स्वीकार होते हैं तो सदन के चेयरमैन या स्पीकर तीन सदस्यों की जांच समिति का गठन करते हैं। ताकि जजों को हटाने के लिए जो आधार बताए गए हैं उनकी जांच हो सके।
इस समिति के सदस्य होते हैं
1.सुप्रीम कोर्ट का एक जज
2.एक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश
3.चेयरमैन या स्पीकर की सहमति से चुने गए एक व्याख्यात न्यायविद
अगर ये नोटिस संसद के दोनों सदनों में स्वीकार किया जाता है तो जांच समिति का गठन लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के सभापति मिलकर करते हैं।
हालांकि ऐसी स्थिति में जिस सदन में बाद में नोटिस दिया जाता है उसे रद्द माना जाता है।
जांच समिति अपनी पड़ताल के बाद औपचारिक रिपोर्ट बनाती है। इस रिपोर्ट को संबंधित सदन के अध्यक्ष को दिया जाता है। सदन के स्पीकर इस रिपोर्ट को सांसदों के सामने रखते हैं। अगर जांच रिपोर्ट में जज को दोषी पाया जाता है तो जज को हटाने के प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में मतदान के लिए रखा जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 124(4) के मुताबिक जज को हटाने की प्रकिया तभी आगे बढ़ती है जब इस प्रस्ताव को दोनों सदनों के कुल सदस्यों में से बहुमत का समर्थन हासिल हो। साथ ही समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या सदन में मौजूद और मतदान करने वाले सदस्यों की दो तिहाई संख्या से कम नहीं होनी चाहिए। जज को हटाने की सारी प्रक्रिया अगर पूरी हो जाती है तो प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास जाता है। इसके बाद राष्ट्रपति के आदेश पर ही जज को हटाया जा सकता है।
1.
वर्ष 1991 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश
"वी रामास्वामी'' को पद से हटाने की प्रकिया शुरू हुथी। जांच समिति ने भी उन्हें दोषी पाया था। लेकिन महाभियोग प्रस्ताव को पर्याप्त सांसदों का समर्थन नहीं मिला।
2.
साल 2011 में सिक्किम हाईकोर्ट के जज "पीडी दिनकरन" को हटाने की भी प्रकिया शुरू हुई थी। मामला जांच समिति तक गया। लेकिन इस प्रक्रिया को उस समय रोकना पड़ा क्योंकि जस्टिस्ट दिनाकरन ने जांच समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए इस्तीफ़ा दे दिया।
3.
साल 2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस्ट "सौमित्र सेन" के खिलाफ महाभियोग की प्रकिया शुरू हुई। जांच समिति ने उन्हें दोषी पाया। महाभियोग प्रस्ताव की राज्यसभा में काफी समर्थन मिला लेकिन लोकसभा में मतदान से पहले ही जस्टिस्ट सौमित्र सेन से इतीफा दे दिया।
4.
साल 2015 में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस "पार्दीवाला" को भी हटाने के लिए प्रस्ताव आया। मामला था आरक्षण के खिलाफ उनके फैसले में जातिगत टिप्पणी। लेकिन ये प्रस्ताव उस समय बेमानी हो गया जब जसटिस्ट पार्दीवाल ने फैसले से विवादित टिप्पणी को हटा दिया।
5.
2015 में ही मध्यप्रदेश के हाइकोर्ट के जस्टिस "SK गंगेले" को हटाने की प्रकिया शुरू हुई थी। लेकिन राज्यसभा की जांच समिति ने उन्हें क्लीन चिट दे दी।
6.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाइकोर्ट के जस्टिस "सीवी नागार्जुन रेड्डी" के खिलाफ भी 2016 और 2017 में महाभियोग प्रक्रिया शुरू हुई थी। लेकिन जांच समिति के गठन से पहले ही दोनों ही बार इस प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिला।