Rajsthan अजमेर दरगाह किसने बनवाई? क्या है अजमेर दरगाह का इतिहास



जाने माने लेखक और इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन ने अक़बर और उनके समकालीन समय पर लिखी आपनी प्रसिद्ध पुस्तक अकबर में कुछ संतो को मुस्लिम साम्यवादी कहा है और इनमें सूफी संत और रहस्यवादी दार्शनिक ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती सबसे पहले हैं। 


वो सिजिस्तान में पैदा हुए। 

एक वही ऐसे मुस्लिम संत हैं जिनकी कृतियों और यश भारतीय उपमहाद्वीप को भी पार कर गए और धर्मपंथ या संप्रदायों की संकीर्ताओं को भी लांग गए। 


अजमेर में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे अधिक पूजनीय है। लेकिन इन दिनों वो कुछ अलग कारणों से चर्चा में है। ये के ऐसी पवित्र दरगाह है जहां महिलाएं बे रोक टोक प्रवेश करती हैं। यहां गैर मुस्लिम महिलाएं भी बड़ी तादात में आती हैं और मन्नत मांगती हैं। 

ये भारतीय उपमहाद्वीप में सूफीवाद , सियासत और संत परंपरा के रहस्यवाद का अनूठा गुलिस्तान है। 


ग़रीब नवाज़ की मेहमान- नवाजी 

दरगाह के इतिहास को कितना भी खंगाल लें, ये जिस संत के नाम से बनी है उसे जानना और भी जरूरी और दिलचस्प है। 

ग़रीब नवाज के नाम से पुकारे जाने वाले ख़्वाजा का जन्म साल 1142 में हुआ। 

प्रसिद्ध रहस्यदर्शी संत ख़्वाजा उस्मान हारूनी के शिष्य ख़्वाजा मुईनुद्दीन साल 1192 में पहले लाहौर और फिर दिल्ली और इसके बाद अजमेर में पहुंचे। इससे पहले वो बग़दाद और हेरात होते हुए कई प्रमुख शहरों में रहस्यवादी दार्शनिकों से रुबरु हुए थे। 

ख़्वाजा का अजमेर में आगमन तराइन के युद्ध के बाद ऐसे समय हुआ। जब भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत हो रही थी। बताते हैं कि उनके यश को सुनकर उनसे मिलने एक बार इल्तुसमिस खुद आए थे। कहते हैं कि रजिया सुल्तान यहां कई बार आई थीं। प्रसिद्ध समाज सुधारक और आर्य समाज के अनुयाई राजे हरबिलास शारदा ने अपनी पुस्तक "अजमेर हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव" में उनके फकीराना अंदाज़ के बारे में लिखा है - 

कि वो थिगलियां लगे कपड़े पहने थे। ऊपर अंगरखा और नीचे दो दो टुकड़े जोड़कर बनाई गई दुताई पहना करते थे।


वो इस पुस्तक में इस दरगाह को अजमेर की एक ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में दर्शाते हैं। ये भी कहा जाता है ख़्वाजा कई कई दिन में एक रोटी खाते थे। लेकिन भूखों के लिए हर समय लंगर तैयार कराया करते थे। अंजान और भूखे गरीब लोगों के लिए उनके मेहमान नवाजी के किस्से बहुत मशहूर हैं। 

ख़्वाजा का निधन साल 1236 में हुआ। 


कैसे बनाई दरगाह?

ख़्वाजा के निधन के बाद उसी जगह एक दरगाह बनाई गई। इसे 13 सदी में दिल्ली सल्तनत का संरक्षण मिला। इसके बाद उथल पुथल भरे दौर में करीब 200 साल तक इसकी तरफ किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। लेकिन मांडू के सुल्तान मेहमूद खिलजी और उसके बाद रियासुद्दीन ने यहां पहली बार पक्की कब्र बनवाई। और एक ख़ूबसूरत गुम्बद बनवाया।

मोहम्मद विन तुग़लक़ संभवतः पहले बादशाह थे जिन्होंने साल 1325 में दरगाह की जियारत की। तुग़लक़ शासक जफर खान ने साल 1395 में दरगाह की यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान जफर खान ने दरगाह से जुड़े लोगों को बहुत सारे उपहार दिए। मांडू के खिलजी ने साल 1455 में अजमेर पर नियंत्रण किया और दरगाह को व्यापक संरक्षण दिया। एक भव्य द्वार, बुलंद दरवाजा और परिसर में एक मस्जिद भी बनवाई। 

उस समय तक यहां कोई ठोस संरचना नहीं थी। इतिहासकारों में अनुसार मूल दरगाह लकड़ी से बनी थी। बाद में इसके ऊपर एक पत्थर की छतरी बनाई गई। 

इतिहासकार राना सफ़वी के अनुसार - दरगाह परिसर में निर्माण का पहला सबूत दरगाह का गुंबद मिलता है, जिसे साल 1532 में अलंकृत किया गया था। जैसा कि मकबरे की उत्तरी दीवार पर सुनहरे अक्षरों में लिखे गए एक शिलालेख से पता चलता है। ये वो ख़ूबसूरत गुंबद है जिसे आज हम देखते हैं। इंडो-इस्लामिक वास्तुकला को ध्यान में रखते हुए, गुंबद को कमल से सजाया गया और रामपुर के नवाब हैदर अली ख़ान की ओर से पेश लिया गया एक सुनहरा मुकुट जो इसके ऊपर रखा गया है। 


दरगाह के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे मुग़ल बादशाह अकबर

मुगल बादशाह अकबर दरगाह के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे। अकबर हर साल आगरा से अजमेर तक पैदल यात्रा कर दरगाह आते थे। अकबर ने दरगाह में एक मस्जिद भी बनवाई। जिसे अकबरी मस्जिद कहते हैं।

अकबर ने देखा कि इतने लोगों का लंगर पकाने में परेशानी आती है। तो उन्होंने दरगाह को एक पीतल की बहुत बड़ी देग दान में दी। 

अभी। दरगाह में जो देग है उन्हें अकबर का ही बताया जाता है। 


साल 1614 में जहांगीर ने एक और कड़ाह पेश किया था। आज जो कड़ाहे हैं उनमें एक साथ 72 हजार लोगों का खाना बनाया जा सकता है। अकबर ने साल 1569 में अजमेर में मस्जिद और खामखां बनाने के निर्देश दिए थे। 

लाल बलुआ पत्थर की एक बनी मस्जिद उन्हीं आदेशों का परिणाम है। 

शाहजहां ने साल 1637 में एक खूबसूरत मस्जिद भी बनवाई थी। और ये आज भी दरगाह के पश्चिम में। 


दरगाह से मुगल शासकों का गहरा रिश्ता

दरगाह को संरक्षण अकबर की अजमेर की पहली तीर्थयात्रा से पहले ही साल 1562 में मिल गया था और ये मुगलों के सत्ता में रहने तक और उसके बाद भी जारी रहा। इतिहासबिद यह भी मानते हैं कि दरगाह का महत्त्व न केवल अकबर के आध्यात्मिक लाभ के लिए था बल्कि इसने भारत में मुगल शासन की स्वीकारिता को सुविधाजनक बनाने में भी मदद की। 

मुगल शासकों का दरगाह से इतना रिश्ता रहा है कि दरगाह में उस भिस्ती निजामुद्दीन की कब्र भी है जिसने बादशाह हुमायूं को गंगा में डूबने से बचाया था। 

ब्रिटिश शासन के दौरान भी ये दरगाह आध्यात्मिक महत्व का केंद्र बनी रही। हालांकि, प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ बदलाव हुए। 


सभी धर्मों के अनुयायियों की आस्था का केंद्र बनी दरगाह

दरगाह सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए आस्था का केंद्र बन गई। बासेओस महोत्सव ने लाखों भक्तों को आकर्षित करना शुरू किया। जो आज भी दरगाह की सबसे बड़ी विशेषता है। 

दरगाह सूफी प्रेम,सेवा और एकता के मूल्यों को दर्शाती है। 

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